Saturday, July 30, 2016

स्त्री, अर्थ, अनर्थ?


कौन कहता है कि मर्दों के लिए औरतें शरीर मात्र हैं। अब इतनी भी संकुचित नहीं है उनकी मानसिकता। नज़र घुमाने की देर है, ऐसे परम प्रतापियों से भरी पड़ी है दुनिया जिनकी औरतों में दिलचस्पी चातुर्दिक होती है। जो उनके धर्म, काम और मोक्ष के साथ-साथ उनके अर्थ के भी तारणहार बनना चाहते हैं। जो हमारे अर्थोपार्जन पर हर किस्म की टिप्पणी करने का दम खम भी उतनी ही शिद्दत से रखते हैं। बहुतों की नींदें हराम रहीं हैं ये सोच सोचकर कि औरतों को नौकरी क्यों चाहिए, पैसों की ज़रूरत ही क्यों है, कमाती हैं तो उनका करती क्या हैं वगैरा-वगैरा।
हम जब नौकरी की तलाश में आकाश पाताल एक कर रहे थे तो साथ पढ़ने वाले कुछ लड़के ऐसे देखते जैसे जॉब मार्केट में उतरने की हिमाकत कर लड़कियों ने उनके हिस्से की रोटी छीनकर खा ली हो। एक ने तो दार्शनिक अंदाज़ में कह भी दिया हमारे लिए भी तो छोड़ दो कुछ नौकरियां, तुम्हें कौन सा घर चलाना है, कमाने वाला पति तो ढूंढ ही देंगे मां-बाप

नौकरी मिलने के बाद हर मोड़ पर महानुभाव टकराए जिन्हें पर्सनल बैलेंस शीट की ऑडिट करने का अधिकार चाहिए था। खींसे निपोरते,  सवालों को गोले दागते चलते लोग बाग मल्लब आप करती क्या हैं पैसों का, मने कि अब आपसे तो लेते नहीं होंगे घर वाले, आगे के लिए भी जमा नहीं करना आपको, वो सब तो मने कि पति का काम होता है ना
सुन-सुनकर खून जलता लेकिन अपनी असहमतियों को दबाकर रखना लड़कियों के स्कूल के सिलेबस में ही शामिल होता है। वैसे भी हमारे ज़माने तक फीलिंग मैड और फीलिंग एंग्री वाले स्माइली का भी जन्म नहीं हुआ था।
ऑफिस में भी अपनी जान को चैन नहीं। इन्वेस्टमेंट के बारे में कोई सलाह चाहिए तो सीधे मुझे बताना, क्या है कि लड़कियों को आइडिया नहीं होता ना फाइनेंस का, कहो तो कभी बैठते हैं ना साथ में ऐसे वालों की सूची अलग लंबी है।
वैसे ये चर्चा पुरूषोचित ठसक से भरी उन महिला परिचितों/रिश्तेदारों के बिना भी अधूरी है जो एक्सरे मशीन के कैलीबर वाली आखों से हमारे डेढ़ कमरे के किराए के घर का मुआयना करती ब्रह्म वाक्य दागा करतीं,ये ल्लो, टीवी, फ्रिज, पलंग, कुर्सी सब तो जोड़ ही लिया है तुमने,  तुम्हें तो बस दो सूटकेसों में एक पति घर लाने की ज़रूरत है...हेंहेंहेंहें"

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लेकिन सबसे पहुंचे हुए वो वाले रिश्तेदार थे जिनकी रातों की नींद हमारी शादी की चिंता ने उड़ा रखी थी। होगी या नहीं, होगी भी तो टिकेगी कैसे? इतने साल से नौकरी कर रही है, दिमाग और पैसे दोनों से इंडिपेंडेंट। किसी की बात थोड़े ना मानेगी। मानो अपना पैसा ना हुआ शेरनी के मुंह इंसान का खून लग गया, अब हो गई वो आदमखोर। घर नहीं, पिंजड़े में रखने लायक।

न्यूज़ चैनलों पर दुनिया के किसी भी मुद्दे पर पूरे कन्विक्शन के साथ बिना सिर पैर के धाराप्रवाह बहस करने वाले महानुभावों को देखते ही वो वाले रिश्तेदार बेतरह याद आते हैं जो हमारी उम्र के बहीखाते संभाले हमारे भविष्य की चिंता में ताबड़तोड़ गोलमेज़ सम्मेलन किए जा रहे थे। जितनी कमाल की चिंता थी उनकी उससे ज़्यादा फाड़ू निष्कर्ष निकला करते, बाई गॉड।
आम सहमति वाला वर्डिक्ट ये कि कमाने वाली बेटी है इसलिए शादी कराने में मां-बाप जानबूझकर देर लगा रहे हैं। वरना घर में पैसे आना बंद नहीं हो जाएगा
बेटे की कमाई को तमगा बनाकर गले में लटकाए फिरने वालों ने बेटियों की कमाई को पाप का ऐसा जामा पहना दिया है कि बिचारे लड़कियों के मां-बाप गर्दन उठाने का साहस ही नहीं कर पाते।
हमारे बेटे ने कार खरीद कर दिया है...मुहल्ले की कीचड़ भरी सड़क पर दनदना कर चलाएंगे।
अब तो बेटा कमा रहा है, हम तो जी नौकरी छोड़ने के मूड में हैं। पजामें को घुटनों तक चढ़ा कर आराम से घर बैठेंगे।
बस बेटियों की कमाई को हाथ लगाना हराम है, नहीं तो अंतर क्या रह जाएगा जी? मने कि क्या फायदा हुआ हमको बेटे के बाप बनने का?  हां नहीं तो।
पिक्चर वैसे अभी भी बाकी है।
दिहाड़ी मज़दूरी के चेक बड़े मज़े से अंटी के नीचे दबा कर खींसे निपोरते कुशल प्रबधंकों से अभी भी साबका पड़ता है जो हील हुज्जत के बाद पेमेंट करते हैं वो भी बड़े कष्ट से। ठसक से कहने की भी हिम्मत रखते हैं, क्या करेंगी आप इतने से पैसों का, आपकी गाड़ी ड्राईवर का खर्च उठाने के लिए तो पति हैं ही ना आपके।

वैसे लोगों की भी कमी नहीं जिनकी पेमेंट कभी पूरी नहीं होने वाली उम्मीद बनकर रह गई हैं। वो कहानी खैर, कभी फिर सही। 

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